- Dr Ravi Prakash Mathur
- Nov 9, 2023
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Updated: Nov 12, 2023
_यह सब तब की घटना है, जब गायत्री तपोभूमि का निर्माण भी नहीं हुआ था। सारा काम घीयामंडी से ही होता था। घर आकर जैसा बताया था, वैसा ही नित्य का क्रम शुरू कर दिया। 15-20 दिन हुए कि एक सज्जन मेरे घर आये और मुझसे बोले, “आप अब तो, आजकल आगरे आ गये हैं और शाम के दो घंटे दफ्तर के बाद अगर मेरी तेल मिल को देख लिया करें, उसका संचालन और जांच कर दिया करें तो क्या लेगें?" मैनें उनसे निवेदन किया कि जाँच दो घंटे में नहीं हो पायेगी और उसके लिए आपको एक लैब अटेन्डेंट और लेना पडेगा, जो दिनभर कार्यप्रणाली को चलाता रहे और आने के लिये मैं 500/- रूपये प्रतिमाह लिया करूँगा। उन्हें क्या सझी. मैं नहीं जानता, वे 500/- रूपये मेज पर रखकर कहने लगे कि आप कल से आ जायें। जाप दो से चार माला रोज पहुँच गया। लगभग दो महीने हुए होगें इसके बाद ही प्रातःकाल दफ्तर जाने से पहले. एक इन्टरमीडियट का विद्यार्थी पढ़ने आना शुरू कर दिया। मैनें उनसे कुछ लेने की बात नहीं कही और तीन महीने में विद्यार्थियों की संख्या तीन हो गयी और प्रति विद्यार्थी से 100/- रूपये मिलने लगे। यह सब एक साथ ही पढ़े और एक ही कक्षा में थे। अब अध्ययन के लिए मेरे पास कोई समय नहीं था, मेरा नित्य का अध्ययन छूट रहा था और उसका दुःख था, एक दिन सोचा मथुरा जाकर पूज्य गुरूजी से कहूँ कि प्रयोग सफल रहा, और दृढ़ निश्चय कर मथुरा चला कि मैं पूज्यवर को पूर्ण रूप से स्वीकार करूँगा कि मैनें उस दिन अहंकार वश जो अवज्ञा की थी, उसके लिए क्षमा करें। और यह कि गायत्री निश्चय रूप से, अवश्य धन दे सकती है।यह मैं स्वीकार करता हूँ कि अन्दर कुछ गुरूदेव से हारने की भावना थी, जो मेरा अहंकार बोलने नहीं दे रहा था पर मैं वैसे भक्ति की बात कह चुका था और यह सुन चुका था कि परमात्मा, आत्मा और अन्तरात्मा, एक ही गायत्री का प्रयोग है। अतः बस से मथुरा पहुंचा और घीयामंडी के चौराहे पर रिक्शे से उतरा, आश्चर्य! गुरूजी वहीं चौराहे पर ही खड़े थे। उन्होंने कहा, "अरे, प्रेमशंकर, 'तुम', अन्दर का अहंकार प्रबल होकर सारे रास्ते के चिंतन को भूल चुका था। मैनें स्पष्ट झूठ का सहारा लिया और कहा कि मैं वृन्दावन जा रहा हूँ , वह रूक कर खड़े हो गये। मुझे भी नीचे उतरना पड़ा। रिक्शे के पैसे देते हुए मुझे संकोच हो रहा था, क्योंकि मेरे झूठ की कलई खुल रही थी। वृंदावन जाने वाले को वहाँ पैसे देने की आवश्यकता नहीं थी। गुरूजी ने यह सब कुछ जान लिया और मुझे सहारा देते हुए कहा, "भई, वृन्दावन के पट बंद हो गये होंगे। तुम मेरे साथ चलो, थोड़ा विश्राम करके चले जाना।" उनकी सहृद्यता और मेरी अविनयशीलता आमने-सामने थी। खैर, हम अखण्ड-ज्योति कार्यालय पहुँचे, पैदल ही, पास तो था ही। गुरूदेव ने एक टाइम-पीस हाथ में लेते हुए कहा, मेरा कुछ जाप रह गया है। चालीस मिनट में पूरा हो जायेगा। हाथ-पैर धोकर आता हूँ, तुम बैठो। वे हाथ-पैर धोने चले गये। उनके जाप के कक्ष में यह देखने के लिए कि वह कैसे जाप करते हैं, मैं अन्दर चला गया, मन में चोरी का भाव था। मैं अन्दर तो चला गया, परन्तु संज्ञा-शून्य हो गया। (एक अद्भुत प्रकाश का तेज अन्दर ही अन्दर, छटा सूर्योदय की थी), अन्दर प्रकाश से भर गया था, इस संज्ञा-शून्य अवस्था में ही था कि गुरूदेव पीछे से आ गये। हाथ पकड़ते हुए बोले,"अरे! तुझे क्या हो गया" फिर मैं मौन था। फिर कुछ समझते हुए बोले, “जप करेगा?" मैं निरूत्तर था। वह बोले, "अच्छा तो पीछे बैठ जा, मैं जप खत्म कर लूंगा। मैं आगे जाप करता हूँ। यन्त्र-चालित सा मैं बैठ गया। गुरूजी पूजन करके उठ गये, मैं बैठा ही रहा। एक प्रकाश के समुद्र में वह प्रकाश का समुद्र ही था, कि अन्दर भी था और बाहर भी था। पता नहीं कितनी देर बाद, लगभग डेढ़-दो घंटे हो गये होंगे, गुरूदेव फिर आये, "अरे उठ" | कंधा हिला कर कहा – भोजन कर लो। मेरी चेतना पुनः लौट आयी, सामान्य हो गया और प्रसाद पाया। प्रसाद पाने के बाद मैनें गुरूदेव से स्वीकार किया कि आपकी बतायी हुई साधना से आर्थिक लाभ होता है और सब बताया कि लोभ के कारण दो से अब मैं छ: माला कर रहा हूँ | उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,"बृंदावन के दर्शन कर आ", और मैं पुनः दर्शन करके आगरे लौट गया। मैं नहीं जानता यह सब क्या हुआ। बाद में लोगों ने बताया कि यह एक मेरी दीक्षा का स्वरूप था। आगरे से मथुरा जाने का क्रम सा बन गया था और गुरूदेव का साधना के सम्बन्ध में सूक्ष्म दिशा-निर्देशन चलता रहता था।


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